Wednesday, January 19, 2011

अंतर्मन की खोज

मन की संवेदनाएं
कभी आनंद से अभिभूत होती हैं
तो कभी दर्द से आहत
कभी करती हैं प्रेरित
कुछ लिखने को
कभी खोजती हैं
लकीरों में आकार
तो कभी सुरों में बंधना चाहती हैं

पर इनको
न शब्द मिल पा रहे हैं
न आकार, न ही लय
तरंगों की भांति
भीतर से उठ कर
हो जाती हैं विलय
भीतर ही कहीं

न कविता बन पाती है
न ही हो पाता है चित्रण
इन संवेदनाओं का
और न ही होता है उद्गम
किसी गीत का

घुट सा रहा है ये मन
शायद खोज रहा है
अपना अस्तित्व
ढूंढ रहा है शब्दों की बैसाखियाँ
स्वंयं होना चाहता है परिभाषित
पकड़ता है कभी रेखाओं का दामन
कभी खोजता है सुरों की सरगम

पर शायद भूल गया है
अपने ही
अंतर्मन की पहचान
जिसे इन संवेदनाओं को
समझने के लिए
न शब्द चाहिए
न सुरों का साज
न ही हैं ये
रेखाओं की मोहताज़
न कोई अपेक्षा
न शिकायत
प्रशंसा और निंदा के घेरे से मुक्त
केवल सच से ओत प्रोत
करती है उसकी हर प्रेरणा
मार्गदर्शन
हर पल
हर क्षण
ॐ 

2 comments:

  1. I can't understand this, but I'm sure it's an insightful poem, based on your previous writing. :)

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  2. @Philosophia
    Thanks for visiting the post.
    Gist of the poem is that to be with ourselves we dont need words to knit them into a poem or lines to sketch a portrait or sur to create music.These are only expressions of our innerself.This poem tells the helplessness when we try to create, whereas the creation is a natural phenomenon and comes by itself naturally when we are just with ourself.

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