न जाने कौन से सुर हैं वो
जो छू जाते हैं अंतर्मन को
कभी सहलाते हैं
और
कभी घाव कर जाते हैं
शायद
अधूरे सपनों से
छेड़ छाड़ कर जाते हैं
और ये तुम्हारे साज़
पहना देते हैं सुरों को ताज
न जाने कहाँ से
गूँज उठती है अनोखी ताल
अनायास ही थिरक उठते हैं मेरे पाँव
सुर साज़ और ताल का
ऐसा अनोखा मिलन
सारी सृष्टि
आनंद विभोर हो उठी है
प्रत्येक कलाकृति
जीवंत हो गयी सारा
सारा ब्रह्माण्ड नृत्य में मग्न है
प्रेममयी अश्रु धारा में
मेरे होने का अर्थ ही धुल गया है
सब एक हो गया है
सब शांत हो गया है
सब मौन हो गया है
शेष है
एहसास
परमानन्द का
I like this very much.
ReplyDeleteReading this poem made me feel something like what one feels during meditation.